Wednesday, December 2, 2009
प्राणि-सेवा ही परमात्मा की सेवा है
Monday, November 2, 2009
Friday, October 2, 2009
क्रिया की प्रतिक्रिया होती है
Thursday, September 3, 2009
Wednesday, September 2, 2009
हिन्दुओं में कोई पैगम्बर नहीं है
Sunday, August 2, 2009
हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर है
Thursday, July 2, 2009
ईश्वर से डरें नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें
Tuesday, June 2, 2009
ब्रह्म या परम तत्त्व सर्वव्यापी है
Saturday, May 23, 2009
हिन्दुत्व अथवा हिन्दू धर्म
ईश्वर एक नाम अनेक
Wednesday, April 8, 2009
ज्ञानियोंमें अग्रगण्य हनुमानजी बुद्धि, बल, शौर्य तथा साहस के देवता तो हैं ही, साथ ही वह अपने भक्तों में दया, सत्य, अहिंसा, न्यायप्रियता, सदाचार तथा परोपकार के सद्गुणों का समावेश करके उन्हें श्रेष्ठता भी प्रदान करते हैं।
श्री हनुमान जन्म महोत्सव उत्तरऔर दक्षिण भारत में अलग-अलग तिथियों और महीनों में मनाए जाते हैं। चैत्र पूर्णिमा और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी पर हनमानजी की जयंती शास्त्रान्तरमें वर्णित है। सेवा और भक्ति के निष्काम आदर्श हनुमान् जी का जन्म माता अंजना के उदर से चैत्र में हुआ बताया गया है। इसमें प्रमाण एवं पुष्टि का आधार है। श्रीरामजीके जन्मार्थयज्ञ से प्राप्त चरूका एक भाग जिसे चील ले उडी थी और वायु मार्ग से वह माता अजंनाको प्राप्त हुआ था जिसे उन्होंने शंकर जी का प्रसाद समझकर ग्रहण किया था।
कार्तिक में लंका विजय से अयोध्या आगमन पर माता सीताजीके पुत्र रूप में उनका जन्म दिन मनाने की परंपरा बन गई। यहीं आती है अद्भुत रामायण की कथा जिस पर गोस्वामी तुलसीदासजीने उनकी स्तुति में लाल प्रयोग किया-
लाल देह लाली लसेअरूधड लाल लंगूर, वज्र देह दानव दलन जय जय जय कपिशू। वह सीताजीके ला हैं और माताजी ने उन्हें शुभाशीषतो लंका में अशोकवाटिकामें प्रथम भेंट में ही दे दिया था। अजर अमर गुननिधिसुत होहु,करहिबहुत रघुनायकछोहू।
अयोध्या में रामजी का राज्याभिषेक होने पर उपहार स्वरूप सीता माता ने हनुमान् जी को बहुमूल्य मोतियों की माला दी। उसके मनकेतोड तोडकर उसमें हनुमान् जी सीताराम की उपस्थिति देखने की चेष्टा कर रहे हैं। वहीं टोके जाने पर अपना वक्षस्थल फाडकर अपने हृदय में युगल जोडी की उपस्थिति दिखाई तो माता जी ने कहा, वत्स मेरे पास अमूल्य तो मात्र सुहाग का सिंदूर है जिसे सीमंतमें धारण करने से हमारे स्वामी की दीर्घायु होती है। तुम भी इसमें से थोडा सा ले लो।
हनुमान् जी ने सारे शरीर में सिंदूर पोत लिया कि सीमंतमें चुटकी भर सिंदूर से श्रीराम की आयु बढती है तो मैं सारे शरीर पर सिंदूर धारण कर उन्हें अजर-अमर ही क्यों न बना दूं। तभी से उनको सिंदूर का चोला चढने लगा।
वैसे जयन्तियांतो महामानवोंसे प्रेरण ग्रहण करने के लिए ही मनाई जाती हैं और सिंदूर का चोला भी महावीर बुद्धिमान एवं प्रथम पूज्य क्रमश:हनुमान् जी, भैरों एवं गणेशजीको चढता है। हनुमान् जी पवन पुत्र हैं उनका वेग भी पवन के समान है। ज्ञानियोंमें अग्रगण्य और बुद्धिमानों में वरिष्ठ अतुलित बलधामहैं जिनके स्वामी राम हैं। जयत्यतिबलो रामोलक्ष्मणश्चमहाबल:राजा जयतिसुग्रीवो।
राघवेणाभिपालित:दासोअहंकोसलेन्द्रस्यरामस्याक्लिष्टकर्मण11
न रावणसहस्त्रंमेयुद्धेप्रतिबलंभवेत्।
अखंड ब्रह्मचर्य,तपस्या, भक्ति और सेवा से हनुमान् जी रिद्धि-सिद्धिके दाता सभी कार्यो के संपन्न होने में अमोघ सहायक संकट हरने और सुख देने वाले बन गए। जहां होती है रामकथा वहां वह अवश्य पहुंचते हैं।
ग्यारहवें रूद्रहनुमान् रामजी के दर्शन कराने में जिनको निमित्तबनाने से गोस्वामी तुलसीदासजीकृत-कृत्य हो गए। हनुमान् जी के इष्ट हैं श्रीराम जिनकी मैत्री वे स्वयं ही सुग्रीव से कराते हैं। सीता माता का पता लगाने के लिए 100योजन का समुद्र पार कर गए तो रावण की सोने की लंका भी जला दी और लक्ष्मण के प्राणों की की रक्षा के लिए धौला गिरि से संजीवनी लाने में भी सफल रहे। रामजी ने कहा कि मैं तुमसे ऋणमुक्त नहीं हो सकता तुम तो मुझे भरत भाई की तरह ही प्रिय हो। उनकी जयंती पर हम भी हनुमान् जी से बल और बुद्धि में उनके व्रत से अनुगामी हों। उनको प्रणाम करें।
अतुलितबलधामंहेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुंज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानंवानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तंवातजातंनमामि।।
अर्थात् स्वर्ण पर्वत जैसी देह, अतुलित बल के धाम, राक्षस वन के लिए अग्नि, ज्ञानियोंमें अग्रगण्य, सभी गुणों के आगार, वानरों के स्वामी, रघुपति के प्रिय भक्त पवन पुत्र को सादर नमन व प्रणाम।
Friday, March 13, 2009
दिव्यशक्ति से महातीर्थ बनी शिरडी
शिरडी के साईबाबा आज असंख्य लोगों के आराध्यदेव बन चुके है। उनकी कीर्ति दिन दोगुनी-रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। यद्यपि बाबा के द्वारा नश्वर शरीर को त्यागे हुए अनेक वर्ष बीत चुके है, परंतु वे अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने के लिए आज भी सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। शिरडी में बाबा की समाधि से भक्तों को अपनी शंका और समस्या का समाधान मिलता है। बाबा की दिव्य शक्ति के प्रताप से शिरडी अब महातीर्थ बन गई है।
कहा जाता है कि सन् 1854 ई.में पहली बार बाबा जब शिरडी में देखे गए, तब वे लगभग सोलह वर्ष के थे। शिरडी के नाना चोपदार की वृद्ध माता ने उनका वर्णन इस प्रकार किया है- एक तरुण, स्वस्थ, फुर्तीला तथा अति सुंदर बालक सर्वप्रथम नीम के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन दिखाई पड़ा। उसे सर्दी-गर्मी की जरा भी चिंता नहीं थी। इतनी कम उम्र में उस बालयोगी को अति कठिन तपस्या करते देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। दिन में वह साधक किसी से भेंट नहीं करता था और रात में निर्भय होकर एकांत में घूमता था। गांव के लोग जिज्ञासावश उससे पूछते थे कि वह कौन है और उसका कहां से आगमन हुआ है? उस नवयुवक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग उसकी तरफ सहज ही आकर्षित हो जाते थे। वह सदा नीम के पेड़ के नीचे बैठा रहता था और किसी के भी घर नहीं जाता था। यद्यपि वह देखने में नवयुवक लगता था तथापि उसका आचरण महात्माओं के सदृश था। वह त्याग और वैराग्य का साक्षात् मूर्तिमान स्वरूप था।
कुछ समय शिरडी में रहकर वह तरुण योगी किसी से कुछ कहे बिना वहां से चला गया। कई वर्ष बाद चांद पाटिल की बारात के साथ वह योगी पुन: शिरडी पहुंचा। खंडोबा के मंदिर के पुजारी म्हालसापति ने उस फकीर का जब 'आओ साई' कहकर स्वागत किया, तब से उनका नाम 'साईबाबा' पड़ गया। शादी हो जाने के बाद वे चांद पाटिल की बारात के साथ वापस नहीं लौटे और सदा-सदा के लिए शिरडी में बस गये। वे कौन थे? उनका जन्म कहां हुआ था? उनके माता-पिता का नाम क्या था? ये सब प्रश्न अनुत्तरित ही है। बाबा ने अपना परिचय कभी दिया नहीं। अपने चमत्कारों से उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और वे कहलाने लगे 'शिरडी के साईबाबा'।
साईबाबा ने अनगिनत लोगों के कष्टों का निवारण किया। जो भी उनके पास आया, वह कभी निराश होकर नहीं लौटा। वे सबके प्रति समभाव रखते थे। उनके यहां अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, जाति-पाति, धर्म-मजहब का कोई भेदभाव नहीं था। समाज के सभी वर्ग के लोग उनके पास आते थे। बाबा ने एक हिंदू द्वारा बनवाई गई पुरानी मसजिद को अपना ठिकाना बनाया और उसको नाम दिया 'द्वारकामाई'। बाबा नित्य भिक्षा लेने जाते थे और बड़ी सादगी के साथ रहते थे। भक्तों को उनमें सब देवताओं के दर्शन होते थे। कुछ दुष्ट लोग बाबा की ख्याति के कारण उनसे ईष्र्या-द्वेष रखते थे और उन्होंने कई षड्यंत्र भी रचे। बाबा सत्य, प्रेम, दया, करुणा की प्रतिमूर्ति थे। साईबाबा के बारे में अधिकांश जानकारी श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर द्वारा लिखित 'श्री साई सच्चरित्र' से मिलती है। मराठी में लिखित इस मूल ग्रंथ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। साईनाथ के भक्त इस ग्रंथ का पाठ अनुष्ठान के रूप में करके मनोवांछित फल प्राप्त करते है।
साईबाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक विशेष शकुन हुआ, जो उनके महासमाधि लेने की पूर्व सूचना थी। साईबाबा के पास एक ईट थी, जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे। बाबा उस पर हाथ टिकाकर बैठते थे और रात में सोते समय उस ईट को तकिये की तरह अपने सिर के नीचे रखते थे। सन् 1918 ई.के सितंबर माह में दशहरे से कुछ दिन पूर्व मसजिद की सफाई करते समय एक भक्त के हाथ से गिरकर वह ईट टूट गई। द्वारकामाई में उपस्थित भक्तगण स्तब्ध रह गए। साईबाबा ने भिक्षा से लौटकर जब उस टूटी हुई ईट को देखा तो वे मुस्कुराकर बोले- 'यह ईट मेरी जीवनसंगिनी थी। अब यह टूट गई है तो समझ लो कि मेरा समय भी पूरा हो गया।' बाबा तब से अपनी महासमाधि की तैयारी करने लगे।
नागपुर के प्रसिद्ध धनी बाबू साहिब बूटी साईबाबा के बड़े भक्त थे। उनके मन में बाबा के आराम से निवास करने हेतु शिरडी में एक अच्छा भवन बनाने की इच्छा उत्पन्न हुई। बाबा ने बूटी साहिब को स्वप्न में एक मंदिर सहित वाड़ा बनाने का आदेश दिया तो उन्होंने तत्काल उसे बनवाना शुरू कर दिया। मंदिर में द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित करने की योजना थी।
15 अक्टूबर सन् 1918 ई. को विजयादशमी महापर्व के दिन जब बाबा ने सीमोल्लंघन करने की घोषणा की तब भी लोग समझ नहीं पाए कि वे अपने महाप्रयाण का संकेत कर रहे है। महासमाधि के पूर्व साईबाबा ने अपनी अनन्य भक्त श्रीमती लक्ष्मीबाई शिंदे को आशीर्वाद के साथ 9 सिक्के देने के पश्चात कहा- 'मुझे मसजिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिए तुम लोग मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहां मैं आगे सुखपूर्वक रहूंगा।' बाबा ने महानिर्वाण से पूर्व अपने अनन्य भक्त शामा से भी कहा था- 'मैं द्वारकामाई और चावड़ी में रहते-रहते उकता गया हूं। मैं बूटी के वाड़े में जाऊंगा जहां ऊंचे लोग मेरी देखभाल करेगे।' विक्रम संवत् 1975 की विजयादशमी के दिन अपराह्न 2.30 बजे साईबाबा ने महासमाधि ले ली और तब बूटी साहिब द्वारा बनवाया गया वाड़ा (भवन) बन गया उनका समाधि-स्थल। मुरलीधर श्रीकृष्ण के विग्रह की जगह कालांतर में साईबाबा की मूर्ति स्थापित हुई।
महासमाधि लेने से पूर्व साईबाबा ने अपने भक्तों को यह आश्वासन दिया था कि पंचतत्वों से निर्मित उनका शरीर जब इस धरती पर नहीं रहेगा, तब उनकी समाधि भक्तों को संरक्षण प्रदान करेगी। आज तक सभी भक्तजन बाबा के इस कथन की सत्यता का निरंतर अनुभव करते चले आ रहे है। साईबाबा ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने भक्तों को सदा अपनी उपस्थिति का बोध कराया है। उनकी समाधि अत्यन्त जागृत शक्ति-स्थल है।
साईबाबा सदा यह कहते थे- 'सबका मालिक एक'। उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भावना का संदेश देकर सबको प्रेम के साथ मिल-जुल कर रहने को कहा। बाबा ने अपने भक्तों को श्रद्धा और सबूरी (संयम) का पाठ सिखाया। जो भी उनकी शरण में गया उसको उन्होंने अवश्य अपनाया। विजयादशमी उनकी पुण्यतिथि बनकर हमें अपनी बुराइयों (दुर्गुणों) पर विजय पाने के लिए प्रेरित करती है। नित्यलीलालीन साईबाबा आज भी सद्गुरु के रूप में भक्तों को सही राह दिखाते है और उनके कष्टों को दूर करते है। साईनाथ के उपदेशों में संसार के सी धर्मो का सार है। अध्यात्म की ऐसी महान विभूति के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम ही होगा। उनकी यश-पताका आज चारों तरफ फहरा रही है। बाबा का 'साई' नाम मुक्ति का महामंत्र बन गया है और शिरडी महातीर्थ।
Sunday, January 4, 2009
मोक्ष की प्राप्ति

उन्होंने आतताइयों से प्रजा की रक्षा की, राजाओं को उनके लुटे हुए राज्य वापिस दिलवाए और सोलह हज़ार स्त्रियों को उनके स्त्रीत्व की गरिमा प्रदान की। उन्होंने अन्य कईं जनहित कार्यों में अपने जीवन का उत्सर्ग किया।
श्रीकृष्ण ने किसी चमत्कार से लड़ाइयाँ नहीं जीती। बल्कि अपनी बुद्धि योग और ज्ञान के आधार पर जीवन को सार्थक किया। मनुष्य का जन्म लेकर , मानवता की…उसके अधिकारों की सदैव रक्षा की।
वे जीवन भर चलते रहे , कभी भी स्थिर नही रहे । जहाँ उनकी पुकार हुई,वे सहायता जुटाते रहे।
उधर जब से कृष्ण वृन्दावन से गए, गोपियाँ और राधा तो मानो अपना अस्तित्व ही खो चुकी थी। राधा ने कृष्ण के वियोग में अपनी सुधबुध ही खो दी। मानो उनके प्राण ही न हो केवल काया मात्र रह गई थी।
राधा को वियोगिनी देख कर ,कितने ही महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी। दे भी क्यूँ न ?
राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था…उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें , वृन्दावन की वे कुंजन गलियाँ , वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते थे , वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी ।
राधा जो वनों में भटकती ,कृष्ण कृष्ण पुकारती,अपने प्रेम को अमर बनाती,उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नही देखा। …तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए ।
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किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना। स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात..मन की बात सुन सकें। या फिर क्या यह उनका अभिनय था?
जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास -क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब ‘जरा’ के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई। तभी उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए ,’राधा’ शब्द का उच्चारण किया।
जिसे ‘जरा’ ने सुना और ‘उद्धव’ को जो उसी समय वह पहुँचे..उन्हें सुनाया। उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे। सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद ,जब उद्धव ,राधा के पास पहुँचे ,तो वे केवल इतना कह सके — ” राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे , किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी”
Tuesday, December 30, 2008
माता-पिता के चरणों में ब्रह्मांड
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एक प्रसंग सभी को मालूम होगा, जब भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय जी और गणेशजी के समक्ष ब्रह्मांड का चक्कर लगाने की प्रतियोगिता रखी कि दोनों में से कौन पहले ब्रह्मांड का चक्कर लगाता है। गणेश जी और कार्तिकेयजी दोनों एक साथ रवाना हुए। कार्तिकेयजी का वाहन था मोर जबकि गणेश जी का मूषक। कार्तिकेयजी क्षण भर में मोर पर बैठकर आँखों से ओझल हो गए जबकि गणेशजी अपनी सवारी पर धीरे-धीरे चलने लगे।
थोड़ी देर में गणेशजी फिर लौट आए और माता-पिता से क्षमा माँगी और उनकी 3 बार परिक्रमा कर कहा- लीजिए मैंने आपका काम कर दिया। दोनों गद्गद् हो गए और पुत्र गणेश की बात से सहमत भी हुए। गणेश का कहना था कि माता-पिता के चरणों में ही संपूर्ण ब्रह्मांड होता है।
गणेशजी के भक्तों को उनकी इसी सीख को आत्मसात करते हुए अपने माता-पिता की सेवा करनी चाहिए। हर हाल में माता-पिता को अपने साथ रख उनका ध्यान रखना चाहिए। हमें अपने आसपास देखने में आता है कि धीरे-धीरे हम पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगते जा रहे हैं। माता-पिता वृद्ध हुए कि उन्हें उनका घर (वृ्द्धाश्रम) दिखा देते हैं।
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शादी के पहले तक माता-पिता ही सब दिखाई देते हैं। शादी के बाद वही स्थान पत्नी और फिर बच्चों का हो जाता है तो फिर वृद्ध माँ-बाप किसके भरोसे रहेंगे। आपके इस व्यवहार का लाभ आपको भी आगे जाकर मिलेगा। प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ कहानी की भाँति जो बच्चे अपने सामने आपका व्यवहार दादा-दादी के साथ देखेंगे। वही वे आपके प्रति भी रखेंगे। आवश्यकता है समय रहते सचेत जाएँ।
जिन माता-पिता ने हमें अनेक कष्ट सहकर पाला-पोसा और बड़ा किया है, हमें उनका तिरस्कार कभी नहीं करना चाहिए। माता-पिता का साया किस्मत वालों के सिर पर ही होता है। एक बार जरा उन अपने मित्रों या परिचितों से मिलकर देखिए जिनके माता-पिता नहीं हैं। तो शायद इस बात का एहसास बखूबी हो जाएगा।
गणेश चतुर्थी पर गणपति बप्पा मोरया के साथ-साथ अपने माता-पिता की सेवा का भी अवसर न चूकें। यही गणेशजी के प्रति आपकी सच्ची श्रद्धा होगी। दुर्वा गणेशजी को चढ़ाएँ और मोदक का भोग लगाएँ जो कि उनको बहुत प्रिय हैं। इसे अर्पित करने के बाद आपकी दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की के रास्ते में कोई बाधा नहीं आएगी और गणपति बप्पा भी कभी आपसे नहीं रूठेंगे।
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प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात् व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है।
जो व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा को देखते हैं उन्हें झूठा-कलंक प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। यह अनुभूत भी है। इस गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम अनुभूत हुए, इसमें संशय नहीं है। यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए-
‘सिहः प्रसेनम् अवधीत्, सिंहो जाम्बवता हतः। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥’
उक्त मंत्र बोलकर कल्याण की कामना से श्रद्धापूर्वक नमस्कार कर लें। यह शास्त्र का दोष शमनार्थ निर्देश है।
दूर्वार्पण विधि
सांसारिक कामनाएँ इस संसार में आए प्रत्येक व्यक्ति को होती हैं। कई कामनाओं का संबंध मूल आवश्यकता से होता है। इसी इच्छापूर्ति की प्राप्ति के लिए व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार प्रयास करता है। लेकिन भौतिक प्रयत्न से भी फल नहीं मिलने पर आशा ईश्वरीय चमत्कार कीओर जाती है। जिसकी प्राप्ति तभी संभव होती है जब आपेक्षक सविधि कोई अनुष्ठान करता है। इसमें गणेशजी की साधना शीघ्र फलदायी है। इनके अनेक प्रयोग में उनको प्रिय दूर्वा के चढ़ाने की पूजा शीघ्र फलदायी और सरलतम है। इसे किसी भी शुभ दिन प्रारंभ करना चाहिए। इसे गणेशजी की प्रतिष्ठित प्रतिमा पर करें। इक्कीस दूर्वा लेकर इन नाम मंत्र द्वारा गणेशजी को गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप व नैवेद्य अर्पण करके एक-एक नाम पर दो-दो दूर्वा चढ़ाना चाहिए। यह क्रम प्रतिदिन जारी रखने एवं नियमित समय पर करने से जो आप चाहते हैं उसकी प्रार्थनागणेशजी से करते रहने पर वह शीघ्र पूर्ण हो जाती है। इसमें इस प्रयोग के अतिरिक्त विघ्ननायक पर श्रद्धा व विश्वास रखना चाहिए।ॐ गणाधिपाय नमः ॐ उमापुत्राय नमः ॐ विघ्ननाशनाय नमः ॐ विनायकाय नमः ॐ ईशपुत्राय नमः ॐ सर्वसिद्धिप्रदाय नमः ॐ एकदन्ताय नमः ॐ इभवक्त्राय नमः ॐ मूषकवाहनाय नमः ॐ कुमारगुरवे नमःगणेशजी की कृपा में ये सहायक हैं * लाल व सिंदूरी रंग प्रिय है।
* दूर्वा के प्रति विशेष लगाव है।
* चूहा इनका वाहन है।
* बैठे रहना इनकी आदत है।
* लिखने में इनकी विशेषज्ञता है।
* पूर्व दिशा अच्छी लगती है।
* लाल रंग के पुष्प से शीघ्र खुश होते हैं।
* प्रथम स्मरण से कार्य को निर्विघ्न संपन्ना करते हैैं।
* दक्षिण दिशा की ओर मुँह करना पसंद नहीं है।
* चतुर्थी तिथि इनकी प्रिय तिथि है।
* स्वस्तिक इनका चिन्ह है।
* सिंदूर व शुद्ध घी की मालिश इनको प्रसन्ना करती है।
* गृहस्थाश्रम के लिए ये आदर्श देवता हैं।
* कामना को शीघ्र पूर्ण कर देते हैं।